Tuesday, July 6, 2010

रात के इस छोर पर .....

Raat ke is chhor par....
I generally give a description about my write ups, but this is one poem, for which I strongly feel to choose silence. However, I would just end up mentioning that it was a saturday night, where on one side had spent a busy week in office and the other side was a Sunday with no plans and promise ....and this is what went through mind that night!
I would thanks shankar sir for asking me to post it in Hindi. It feels good and is much more clearer in expression.
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रात के इस छोर पर......

कल रात जगमगाती हुई

मेरी चौखट पर आ सो गयी

मैं निहारता रहा

वो सितारों में ओझल हो गयी

कल सवेरा आयेगा

चिट्ठी देने को कहा

लिखा था

ख़ुशी का पिटारा देना

सुबह ने चुटकी ली

घडी की सुइयों की आवाज़

पाजेब का शोर करने लगी

मैंने ढूंडा दरबदर

वो जैसे इशारा कर ही रह गयी

बेखबर हर पहर

गुज़र गया नजदीक से

रात फिर चौखट पर मेरी

ग्लानी भरे हाथ जोड़े खडी

मैं मुस्कुराता , दिल बहलाता

गीत पुराना कोई गुनगुनाया

दरवाज़े पे कड़ी लगा दी

रात कहानी सुना रहा हूँ

थपकियों की आहट में

रात ,चांदनी समेट सो गयी

मैं निहारने लगा

की कहीं किरण रवि की

खिड़की से गिर पड़ी

फिर दिन बरसने को था खड़ा

और रात नम चलने लगी

जाते जाते कहा

मैं कहानी नहीं एक रात की

मैं किस्सा दिन भर घुटते जज़्बात की हूँ

कल फिर मिलेंगे

तुम कुछ न बोलना

मुझे समझने देना ,कहने देना

कहना जो इन दीवारों के रंग को है

घडी खिड़की कटी पतंग को है

कहना जो इन अधलिखे कागजों के ढेर को है

ममता प्यार यकीन के फेर को है

कहना जो बरसात की बूँद को है

आँगन गली बचपन की गूँज को है

कहना जो तुमको खुद से है

हर कविता में टटोलते सुख से है

प्यार से ख्याल से

आईने के सवाल से

मैं कहानी नहीं एक रात की

मैं कहानी नहीं एक रात की ...

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...यह कह रात मेरे हाथ

एक कागज़ की पुडिया सी मुट्ठी

में थमा कर चली गयी।

खोला फिर कुछ साफ़ किया

देखा कुछ लिखा था ....

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"ख़ामोशी के शामियाने

जो लगा रखे हैं तुमने

मुस्कुराहटों के अलाव से जगमग

दिखती है कुछ ख़ुशी जो लगभग

वो शामियाना भी गिर जायेगा

और मुस्कुराकर नाटक जो करते हो

वो ढोंग भी जल जायेगा ."

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अंत में कोष्ठक में लिखा था.....

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"नित निरंतर प्रयत्न करो

पर जो हो , उतना ही जतन करो

अंकुश अविल्म्भ हटा दो तुम

जीवन्तता परिधान बना लो तुम "

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....और इतने में ही अचानक दरवाज़ा खटका

आकुल स्वर में मैंने नाम पूछा

अहिस्ता से ज़मीन पर उसने तलवा रगडा

पर जैसे छुपते छुपते भी

पाजेब खुद को रोक न सकी

मेरी दिलचस्पी बढ़ी

और इस दफा आवाज़ थोड़ी और कसी

कोई खिलखिलाकर कर हंस पड़ा

जैसे एक एक घुंघरू गिर रहा

मैं भी साथ में हंस पड़ा

हँसता रहा हँसता रहा

कड़ी खोली

आँखें मसली

और सुबह के पिटारे से निकली

सपनो से हकीकत में पिघली

मेरी कहानी मेरा ही अक्स

मेरा अपना कोई पुराना शक्स।

---पलोक सिंह